
रोशनी देती हुई सब लालटेनें बुझ गईं
ख़त नहीं आया जो बेटों का तो माएं बुझ गई।
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
मां बहुत गुस्से में होती है, तो रो देती है।
कभी-कभी मुझे यूं भी अज़ा बुलाती है
शरीर बच्चे को जिस तरह मां बुलाती है।
वो मैला-सा-बोसीदा-सा आंचल नहीं देखा
बरसों हुए हमने कोई पीपल नहीं देखा।
लबो पर उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आंसू
मुद्दतों मां ने नहीं धोया दुपट्टा अपना ।
मुझे बस इसलिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी मां की तरह खुशगवार लगती है।
-मुनव्वर राणा