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10 October 2009  

 ओबामा को नोबेल...बापू मुस्करा रहे हैं

राकेश परमार  Saturday October 10, 2009

 

 

 

कल रात मेरे सपने में बापू आए।...पता नहीं क्यों आए। आना तो बराक ओबामा को चाहिए था। शाम से लेकर देर रात तक उन्हीं की चर्चा थी। और खबर भी उन्हीं की बनाई थी। वही नोबेल वाली.....। और खबर के बाद तो नोबेल वालों को कोसते भी रहे थे। पता नहीं बराक में एक साल में क्या नजर आ गया। दे दिया शांति का सबसे बड़ा पुरस्कार उन्हें। फलां-फलां...। इसी खीझ़ के साथ नींद भी आ गई थी। लेकिन पता नहीं क्यों सपने में बराक नहीं आए, बापू आ गए। 

 

बापू मुस्करा रहे थे। एक जिद्दी बच्चे की तरह उनकी मुस्कराहट से मुझे खीझ हो रही थी। लेकिन वह मुस्कराए जा रहे थे।



मैंने खीझकर कहा...

क्या बापू तुम मुस्कराए जा रहे हो। तुम्हें पता है बराक ओबामा को नोबेल मिला है। नोबेल बापू नोबेल। शांति का नोबेल। शांति के लिए दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार। मैंने बापू के चेहरे की तरह हैरत भरी नजरों से देखते हुए कहा। लगा बापू जरूर कुछ कहेंगे।



बापू अभी भी पहले की तरह मुस्करा रहे थे....मेरी खीझ़ बढ़ती जा रही थी।



तुम बहुत बदल गए बापू। खुश हो रहे हो ना कि देखो ओबामा की चमड़ी और हमारी चमड़ी का रंग एक ही है।..तो नोबेल तो अपनी नस्ल वाले को ही मिला ना। अंग्रेज यहां भी हार गए। क्या बापू तुम भी अब ऐसा सोचने लगे। तुम्हारे चेहरे की खुशी तो यही कह रही है बापू। बोलो बोलो...यही बात है ना? मेरी आंखें जवाब के इंतजार में बापू के चेहरे पर जा टिकीं।



लेकिन यह क्या?  बाप के चेहरे पर वही निश्छल मुस्कराहट...इस बार कुछ और चौड़ी।



मुझे बापू की यह मुस्कराहट काटने को दौड़ रही है। लग रहा था मेरा यह आरोप बापू को बेचैन कर देगा और नोबेल को लेकर मेरे स्यापे के साथ वह अपने शब्द भी जोड़ेंगे।...लेकिन बापू हैं कि मुस्कराए जा रहे हैं।



मेरा सब्र जवाब दे रहा है। इस बार गुस्ताखी की हद तक तक जा पहुंचता हूं।... 



कैसे इंसान हो बापू? क्या तुम्हें गुस्सा नहीं आता। सारी जिंदगी गुजार दी अहिंसा के रास्ते पर। आखिर में सीने पर गोली भी खाई। फिर भी जो अवॉर्ड आज तक तुम्हें नहीं मिला, वह ओबामा को मिल गया।...जलन नहीं होती। कोफ्त नहीं होती। नोबेल वालों को गालियां देने को मन नहीं करता। बोलो बापू। बोलो...। 



इस बार मैं बड़ा आश्वत हूं। ...बापू पर सवाल का ब्रह्मास्त्र जो छोड़ चुका हूं। जवाब तो मिलेगा ही। अब मेरे चेहरे पर भी मुस्कान है, लेकिन बापू वाली नहीं। मेरी नज़रें फिर बापू के चेहरे पर जा टिकीं हैं।



लेकिन हे भगवान यह क्या? यह इंसान तो मुस्कराए जा रहा है। मेरा सिर फटने को है। ...यह इंसान है या...। कोई जलन नहीं, कोई बैर नहीं...।



तुम इसी लायक थे बापू। तुम्हें दुनिया का यह सबसे बड़ा शांति पुरस्कार कभी मिल ही नहीं सकता था। हम तो यूं ही तुम्हारे लिए नोबेल वालों को कोसते रहते हैं। मैं बेहद गुस्से में बापू से कहता हूं।



...लेकिन बापू अभी भी मुस्कराए जा रहे हैं। मैंने बापू से नजरें हटाकर उनकी तरफ पीठ कर ली है। अचानक बापू की आवाज मेरे कानों में गूंजती है...लेकिन शिट... अलार्म की आवाज मेरी नींद तोड़ देती है। कमबख्त इसको भी अभी बजना था। सुबह के साढ़े पांच बज चुके हैं। मैं ऑफिस के लिए तैयार होने लगता हूं...



बापू की मुस्कुराहट मेरे आंखों के सामने अभी भी तैर रही है।...लेकिन मेरी उलझन बरकरार है।...आखिर ओबामा को नोबेल पर क्या कहना चाहते थे बापू ? क्या आप मुझे बता सकते हैं?

 

 

 
 
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