NOBLE PRIZE -A PEACE WITH CRULITY

shailesh agarwal (professional accountant)   (7642 Points)

13 October 2009  

 

नोबल पुरस्कार
 
शांति के साथ क्रूरता (10th Oct 09)
कल्पेश याग्निक
नेशनल एडिटर, दैनिक भास्कर
विश्व शांति के लिए 1994 में जब प्रमुख लड़ाकू फिलीस्तीनी नेता यासेर अराफात को नोबेल मिला था तो मखौल उड़ा था कि ‘क्या इस बार पुरस्कार के लिए हत्यारा होना शर्त थी?’ अब जबकि बराक ओबामा को यह सम्मान दिया गया है तो पूछा जा रहा है : क्या इस बार सिर्फ ‘बातें’ काफी थीं? कि एक पखवाड़े में आप विश्व शांति पर कितनी बात कर सकते हैं- यह परखा जा रहा था?



जानना जरूरी होगा कि ओबामा ने 20 जनवरी 2009 को अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में काम शुरू किया। नोबेल शांति पुरस्कार के नाम लेने की अंतिम तारीख 1 फरवरी 2009 थी। यानी 11 दिन के उनके कार्यकाल पर उन्हें विश्व में अमन स्थापित करने का सम्मान दे दिया गया! यही नहीं, निर्णायकों ने अपने वोट जून में दे दिए थे- यानी तब भी चार माह हुए थे ओबामा के उन प्रयासों को, जो किसी और को तो खैर दिखे तक नहीं, किन्तु नोबेल कमेटी को ‘असाधारण, अद्वितीय’ लगे। सम्मान की घोषणा वाले दिन तक भी वे नौ माह पुराने ही ‘शांति के क्रांतिकारी’ हैं।



संभवत: काहिरा में उनके भाषण का यह कमाल था। इसमें उन्होंने ‘अस्सलाम् वाएलेकुम’ कहकर अरब जगत को चौंका दिया था। हालांकि इजराइल-फिलस्तीन में अमन-चैन बढ़ाने वाले उनके जिन कथित प्रयासों की प्रशंसा नोबेल कमेटी ने की है- वे वास्तव में कहीं नजर ही नहीं आ रहे। यरुशलम में आज भी वैसी ही हिंसा भड़की हुई है। जिस रूस के बारे में उनकी बातचीत को ‘महान’ बताया जा रहा है- उसने भी कोई कागज नहीं दिखाया है और न कोई हस्ताक्षर कहीं किए हैं। यूं भी सोवियत संघ से बिखरकर रूस रह जाने की टीस क्रेमलिन को खोखला कर चुकी है। कुछ कर भी दिया तो इससे विश्व को क्या मिलेगा।



ओबामा को सर्वोच्च सम्मान देना नोबेल कमेटी की विवशता हो सकती है और किसी को इससे फर्क भी नहीं पड़ता। प्रश्न केवल यह है कि कभी अंतरराष्ट्रीय पुलिस तो कभी विश्व के न्यायाधीश का भेष बनाने/बदलने वाले अमेरिका के उस राष्ट्रपति को आप कैसे यह तमगा जड़ सकते हैं, जिसने न तो इराक से अपनी सेनाएं वापस ली हैं,



न ही अफगानिस्तान से। हमारे देश के परमाणु परीक्षण पर क्रंदन कर चुके अमेरिका के स्वयं के हथियारों में ओबामा ने क्या कमी की है? आज तो विश्व यह जानना चाहता है। यदि प्रमुख सैन्य जर्नल्स और किताबों पर निगाहें डालें तो पता चलता है कि ओबामा के नेतृत्व में वॉशिंगटन के पास आज 5500 से अधिक वॉरहेड्स हैं। यानी शक्तिशाली संहारक- परमाणु हथियारों और बमों- का सक्रिय जखीरा। और तिस पर वे बने हुए हैं हथियारों को समाप्त करने के अभियान के सिरमौर। बल्कि अब तो इस सम्मान में उन्हें ‘हथियारों की समाप्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ आव्हान करने वाला’ कहा गया है। आव्हान यानी वही-बातें। सब कुछ कर लेने, सब कुछ पा लेने के बाद होता ही क्या है-बातें।



विश्व में परमाणु हथियार बनाने वाला पहला देश अमेरिका था। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी को तबाह कर वह एकमात्र ऐसा देश भी बन गया-जिसने इन हथियारों का वास्तविक उपयोग निर्दोषों का रक्तपात कर किया। आज विश्व के सात परमाणु देशों-अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, हिंदुस्तान और पाकिस्तान में कुल मिलाकर जितने एटमी बम होंगे(कोई 22-23 हजार), उनसे तीन गुना अधिक अमेरिका के पास रहे हैं। आज भी उसने हथियार जरूर कम कर दिए हैं, लेकिन क्षमता सर्वाधिक है।



हमसे परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर दबावपूर्वक चाहते हैं-जबकि हमारी अघोषित, अनुमानित क्षमता बमुश्किल 30-35 वॉरहेड्स होगी। हमसे तो पाकिस्तान ने गुपचुप ज्यादा हथियार बना रखे हैं-जिसे लगातार अरबों डॉलर की मदद इन्हीं ओबामा के हस्ताक्षरों से दी जा रही है। उस पैसे को हमारे विरुद्ध चोरी के हथियारों पर खर्च किया जा रहा है- लेकिन सब कुछ सुन-समझ चुकने पर भी ओबामा क्या करते हैं-बातें। बेहतर तो होता कि उम्र, अनुभव और अभ्यास तीनों मानदंडों पर ‘अभी कम होने’ की विनम्रता दिखाते हुए ओबामा स्वयं इसे लेने से इनकार कर देते। किन्तु उनकी विनम्रता का तकाजा कुछ और रहा होगा। चाहे हमें वह क्रूर लगे।



अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को नोबल शांति पुरस्कार मिलने पर शुरू हुए विवाद पर अपने विचारों से हमें अवगत कराएं